लघु कथा

फ़ैसला पीली का

ज्ञानेंद्र मोहन खरे

कहानी। ज़िंदगी का सफ़र बहुरंगी है। ज्ञानू जी ने तमाम उम्र अपनों के इर्दगिर्द ज़िंदगी गुज़ारी। एक पड़ाव ऐसा आया कि उन्हें अपनों के सानिध्य से मरहूम होना पड़ा। अकेलेपन के इस दौर में मछलियों और रंग बिरंगी चिड़ियाओं का अवलंबन किया। दोनों ने उनका पूरा साथ दिया और ज्ञानू की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन गये। ज्ञानू दोनों की खूब तीमारदारी करते। चिड़ियों से बातचीत करना उन्हें बहुत भाता था। भोर में चिड़ियों का चहचहाना ज्ञानू को स्पंदित करता था। अपने हाथों से पिंजरे की सफ़ाई करना और फिर चिड़ियों को अपने हाथों से दाना खिलाना एक अप्रतीम एहसास था।

 

सारी चिड़ियों के पुकारू नाम थे। नीली, हरी, भूरी,पीली, मिल्की, सफ़ेदु और आसमानी। सब एक से बढ़कर एक पर पीली ज्ञानू को सबसे प्यारी थी। ख़ासकर उसके सुंदर पीले और सुवा रंगी पंख। पीली हर वक्त कुछ बोलती रहती जो ज्ञानू के समझ के परे था। भूरी और पीली के बीच बड़ा अपनापन था।

राजू और बिट्टू के आने से घर का माहौल ख़ुशनुमा हो गया था। दोनों दिनभर मछलियों और चिड़ियों के साथ व्यस्त रहते। भूरी की तबियत कुछ दिनों से ख़राब चल रही थी। बिट्टू ने इस बात का ज़िक्र भी किया था। राजू ने तो एक दिन चिड़ियों को आज़ाद करने की मनुहार की। उसने एक चिड़िया को पिंजरे के द्वार पर चोंच मारते देखा था। पर ज्ञानू ने इसे नज़रअंदाज़ किया क्योंकि उनकी समझ में यह चिड़िया की शरारत और चुलबुलापन था। इस तरह की गतिविधियाँ उन्होंने पहले भी कई बार देखी थी। शायद ज्ञानू अपने निर्मल आनंद को खोना नहीं चाहते थे। फिर से अकेलेपन के डर से भी घबराहट होती थी।

 

एक दिन ज्ञानू चिड़ियों और मछलियों की सेवा कर कार्यालय के कार्यों में व्यस्त थे, बिट्टू ने सूचित किया की एक चिड़िया कम है।सारे घर वाले परेशान थे और चिड़िया की खोजबीन शुरू हो गयी पर निराशा हाथ लगी। सभी सकते में थे। ज्ञानू वापस आये तो पाया पीली नदारद है। पीली के उड़ जाने से ज्ञानू विस्मित और परेशान थे। ज्ञानू को अब कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। वो अनजाने ग़म और अपराध बोध में कटे वृक्ष की तरह बिस्तर में पड़े थे। पीली की सलामती के लिए ज्ञानू व्याकुल परेशान थे। उन्हें अंदेशा था कि पीली की जान को ख़तरा है।

 

अब तक घरेलू माहौल में गुजर बसर करने वाली पीली बाहरी वातावरण में कैसे रहेगी। कहाँ रहेगी ? कैसे ख़ाना खाएगी ? अनंत अम्बर में उड़ान कैसे भरेगी? चिंतातुर ज्ञानू के कदम सहसा बालकनी के तरफ़ चल पड़ते थे और उनकी नज़रें पीली को ढूँढती रहती।

 

किसी भी परिंदे की आवाज़ उन्हें बारम्बार संशय में डाल देती थी। ज्ञानू उम्मीद में दौड़कर बालकनी की तरफ़ जाते पर पीली का अता पता नहीं था। ज्ञानू की मायूसी चरम सीमा पर थी।उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि नन्ही पीली का फ़ैसला उसकी आज़ादी का फ़रमान था या जज्बाती उफान। कुछ दिन पहले ही पीली की नज़दीकी साथी भूरी का लंबी बीमारी के बाद दुनिया से कूच कर गई थी। उसके बाद से ही पीली का व्यवहार तनिक उग्र हो गया। पर पीली इतना कुछ कर गुजरेगी ऐसा अंदेशा नहीं था। उन्हें पूरा भरोसा था कि पीली अपनी गलती सुधरेगी और वापस आएगी । ज्ञानू को पीली की वापसी का व्यग्रता से इंतज़ार था

 

इसी पशोपेश में कई दिन गुजर गये पर पीली वापस नहीं आयी। हर एक दिन ज्ञानू पर मानसिक दबाव बढ़ा रहा था और उन्हें जल्लाद साबित कर रहा था। एक ऐसा निर्मम शख़्स जिसने अपनी ख़ुशियों के लिए नन्ही जानों की आज़ादी छीन ली। अब ज्ञानू की अंतरात्मा भी उन्हें दुत्कार रही थी। ज्ञानू को एहसास हो चला था कि पंछियों की आज़ादी में ही उनकी मानसिक वेदना का निदान है। अपने जन्मदिवस पर चिड़ियों की सेवा के बाद ज्ञानू ने पिजड़े को बालकनी में रख दरवाज़ा खोल दिया। एक एक करके सारी चिड़ियाँ बाहर आयी और ज्ञानू की आँखों से ओझल हो गयी।

ज्ञानू स्वयं को दोषमुक्त महसूस कर रहे थे। उन्हें अपनी स्वार्थपरता पर ग्लानि हो रही थी। उनकी आँखें नम थी पर हृदय सुकून से ओतप्रोत था। पीली के फ़ैसले ने उन्हें जाने अंजाने में की गई गलती का एहसास करा दिया था। जघन्य अपराध से बचा दिया था। शायद यही ज्ञानू का प्रायश्चित था।

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