
ज्ञानेंद्र मोहन खरे की कलम से
राजू थोड़ी देर पहले ही गर्मी की छुट्टियों में घर आया था। गोरा दुबला पतला कुशाग्र बुद्धि वाला राजू बारहवीं कक्षा का छात्र था। बात बात में ज़िद्द करना, अपनी बात मनवाने के लिए अड़ना और कभी कभी संवेदनहीन हो जाना उसकी आदत थी।
पापा ने आवाज़ दी … इधर आना बेटा, राजू यंत्रवत चल पड़ा। पापा कमरे की बाहर की बाल्कनी में खड़े थे और वहाँ रखे कबूतर के तीन अंडो को उसे दिखाने बुला रहे थे। पर्दे को हटा राजू ने देखा कि कबूतरी अंडो के ऊपर बैठी थी। इंसानी आहट सुनते ही कबूतरी अंडो को छोड़ उड़ गयी।
जब क़रीब एक घंटे बाद तक कबूतरी वापस नहीं आई तो राजू का सब्र टूट गया और उसे अंडो की सुरक्षा की चिंता होने लगी। उसने फटाफट कपड़े की गुदड़ी बनाई और अंडो को उस पर रख दिया। साथ धूप से बचाव के लिए अपने क्रिकेट बैट को ऊपर टिका दिया। राजू हरेक घंटे अंडो की देखभाल कर रहा था कि अंडो को कोई नुक़सान ना हो।
सूरज ढल चुका था पर कबूतरी का कोई अता पता नहीं था। राजू को बहुत आश्चर्य था कि कोई मॉ अपने बच्चे को छोड़ कर कैसे जा सकती है? राजू को चिंतित देख मम्मी ने समझाया कि भगवान सभी की देखभाल करते है। सभी जीवधारी संवेदनशील होते है। तुम अब अपना काम करो। पर राजू मम्मी की समझाईश से बहुत संतुष्ट नहीं था। फिर भी अनमने भाव से पढ़ने बैठ गया।
रात्रि के खाने की बाद राजू ने पुनः अंडो को देखने के लिए बालकनी का दरवाज़ा खोला तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था क्योंकि कबूतरी अंडो को से रही थी। अब राजू रोज़ कबूतरी के लिए दाना पानी रखने लगा ताकि वो अपना ज़्यादातर समय अंडो के पास बिताए और अंडो की समुचित देखभाल हो सके।
दिन गुजरते गए। राजू को बेसब्री से प्रतीक्षा थी कि कबूतर के बच्चे कब अंडो से बाहर आते है। एक दिन सवेरे गुटरगूँ सुन राजू बाहर आया तो देखा कबूतरी के साथ एक कबूतर भी है। वो आपस में शायद कुछ बतिया रहे थे जो राजू की समझ से परे था। जब उसने अंडो पर नज़र डाली तो तीन नवजात कबूतर नज़र आए। राजू ने प्रफुल्लित हो ज़ोरों से आवाज़ लगा घर के सभी सदस्यों को बुला लिया। आज राजू के लिए मानों त्योहार था। उसके चेहरे पर अतिरेक आनंद था। राजू ने तीनो बच्चों को बारी बारी उठाया और पुचकारने लगा।
अब कबूतर के बच्चों की देख़भाल करना राजू के जीवन की दिनचर्या बन चुका था। घर के कार्य में कोई रुचि ना लेने वाला राजू अब रोज़ बालकनी में झाड़ू लगाता। बच्चों की साफ़ सफ़ाई करता और उन्हें दाना खिलाता। अब कबूतरी भी राजू को पहचानने लगी थी। राजू को इंतज़ार था बच्चों के शीघ्र बड़े होने का। वो दिन रात ख़्यालों में डूबा रहता कि बड़े होने पर कबूतर के बच्चे उसे पहचानेंगे और यदाकदा उसके हाथ और कंधो पर आकर बैठा करेंगे और उसे अपने दोस्तों पर रौब झाड़ने का मौक़ा मिलेगा।
पर नियति का खेल इंसान की समझ से परे होता है। तीन में से एक बच्चा चल बसा। राजू ने कबूतरी को उसे अपनी चोंच में दबाए ले जाते देखा। राजू गमगींन था। उस बच्चे की मृत्यु के लिए वो स्वयं को ज़िम्मेदार मान रहा था। उसे लग रहा था कि यह हादसा शायद देख भाल में लापरवाही का परिणाम था। मम्मी पापा उसे लगातार समझा रहे थे।
अब राजू और भी सतर्क हो गया था। नन्हें कबूतरों को रोज़ नहलाता ताकि वो बीमारी से बचे रहें। नन्हे कबूतर अब थोड़ा उड़ने की कोशिश करने लगे थे। राजू ने पहचान के लिए दोनो के पैर में लाल धागा बांध दिया था। अब कबूतरी का आना कम हो गया था और दोनो नन्हे कबूतर राजू की सेवा पर निर्भर थे। एक दिन एक कबूतर उड़ छत की मुँडेर पर जा बैठा। राजू ने सफ़ाई कर्मी को बुलाया पर कबूतर उड़ अन्यत्र चला गया। राजू बेहद गुमसुम था। ध्यान बताने के लिए वो दूसरे कबूतर के बच्चे को हथेली में लेकर प्यार करने लगा। सदमें की हालत में उसकी रातों की नींद उड़ हो गयी थी।
दो दिन गुजर गए। राजू एक कबूतर की देखभाल में व्यस्त रहता। अचानक शाम को उसने देखा की वो दूसरा बच्चा कबूतर अपने मॉ पिता के साथ वापस आ गया है। राजू खुश हो गया। उसने उसे जी भर के उसे प्यार किया। सेवा सुश्रुषा की। उस रात में राजू इत्मीनान से सोया। सवेरे देखा कि दोनों कबूतर बालकनी में है। राजू ने दोनो को नहलाया और खाना दिया। पर कुछ देर में ही दोनो कबूतर उड़ चले और थोडी देर में उसकी आँखों से ओझल हो गए। राजू बारम्बार बालकनी में जाकर ढूँढता पर कबूतर वापिस नहीं आए।
राजू की आँखों में आँसू थे। शायद उसके त्याग और समर्पण की यह इंतहा थी। इस घटना ने उसके मन में सेवा भावना और संवेदन शीलता के प्रति विश्वास को और पुख़्ता कर दिया था। घर के सभी सदस्य राजू की बदली सोच और व्यवहार में आए अप्रत्याशित बदलाव से आल्हादित थे। पर राजू को अब भी दोनो कबूतर्रों का इंतज़ार है।